रश्मिरथी सर्ग प्रथम //रामधारी सिंह दिनकर रश्मिरथी सर्ग प्रथम
रश्मिरथी सर्ग प्रथम द्वन्द युद्ध के लिए पार्थ को फिर उसने ललकारा। अर्जुन को चुप ही रहने का गुरु ने किया इशारा। कृपाचार्य ने कहा - सुनो हे वीर युवक अनजान। भरत वंश अवतंस पाण्डु की अर्जुन है संतान। क्षत्रिय है यह राजपुत्र है यों ही नहीं लड़ेगा। जिस तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़ेगा? अर्जुन से लड़ना हो तो मत गहो सभा में मौन। नाम धाम कुछ कहो,बताओ कि तुम जाति हो कौन? जाति! हाय री जाति! कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला। कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला। जाति - जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाषाण्ड। मैं क्या जानू जाति? जाति हैं ये मेरे भुजदण्ड। ऊपर सिर पर कनक छत्र, भीतर काले के काले। शरमाते हैं नहीं जगत् में जाति पूछने वाले। सूतपुत्र हूँ मैं, लेकिन, थे पिता पार्थ के कौन? सूतपुत्र हूँ मैं, लेकिन, थे पिता पार्थ के कौन? मस्तक ऊँचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो। पर, अधर्ममय शोषण के बल से सुख में पलते हो। अधम जातियों से थर थर काँपते तुम्हारे प्राण । छल से माँग लिया करते हो अँगूठे का दान। पूछो मेरी जाति, शक्ति हो तो मेरे भुजबल से। रवि समाज दीपित ललाट से, और कवज कुण्डल से। पढो उस