खंडहर पर कविता
चित्र आधारित
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कल तक थे जो गुरबत में,
देखो आज सोए हैं तुरबत में,
गुमान किस बात का है बंदे,
राजा महाराजा जाते उसी रास्ते।
कितना भी पा ले जीवन में कोई,
अंत में तो जाना है चार कंधे।
कहती है तुरबत बड़ी देर कर दी,
कहां खोए थे तुम ने तो हद कर दी,
उस कीमत के लिए दौड़े इतना,
जिसकी अदायिगी तुमने मर कर दी।
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सुखमिला अग्रवाल
स्वरचित मौलिक
मुंबई
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खंडहर हूँ
आज मैं खंडहर हूँ
महज एक खंडहर
किंतु कभी
था विशाल प्रासाद
चप्पा था मेरा आबाद
गाता था अपनी
गौरव गरिमा
फैली थी मेरी
कीर्ति महिमा
आज रोता हूँ बेबस हूँ
महज एक खंडहर
इन टूटी दीवारों की बानी
लगती कुछ जानी पहचानी
कल जहाँ सुरभि बिखरती थी
पायल की छनक भरती थी
आज सन्नाटा छाता है
रात मेंउल्लू गीत गाता है
अकेला हूँ जर जर हूँ
हाँ मैं खंडहर हूँ
मंजुल
रायपुर छत्तीसगढ़
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*मंजुल जी*
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*खंडहर*
महलों में रहने वाले अब तो हुआ पुराना।
ऊँचे किलों का अब तो चला गया जमाना।
पत्थर के घर थे जब तो कैद में थी बुलबुल।
आजाद आसमां पर अब हो गया ठिकाना।
शाखों झाड़ियों में देखते अवशेष जिसके।
छुपे हुए हैं किस्से अनजान सा फसाना।
देखो समझो सोचो इतिहास कैसा यहाँ का ।
मिटने लगा है ऐश्वर्य मुश्किल जरा बचाना।
आओ मिलजुल कर पुनः शोहरत कमाएँ।
बड़ी अनमोल धरोहर फिर से इसे सजाना।।
अर्चना पाठक निरंतर
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